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खुला दिन / नरेन्द्र शर्मा
Kavita Kosh से
कल बूँदा-बाँदी से भीगी
सौंधी सुगंध वाली धरती मेरे नीचे,
ऊपर सुकुमार आरियों के सौ चँवर डुलाता नीम,
और मैं लेटा हूँ आँखें मीचे।
चह चह करती चिड़िया कहती--
’मुझको देखो, देखो मुझको’,
मैं आँख खोल देखता उसे, कहता हँस कर--
’देखूँ नीला आकाश या कि देखूँ तुझको?’
मैं लेटा हूँ तरु के नीचे,
छन छन कर आती धूप--धूप नीले नभ की,
मँडराती नभ में चील एक--बस एक चील,
चक्कर पर चक्कर काट रही चकराई-सी,
जो पा न थाह नीले नभ की!
हम सब के ऊपर सूर्य
रजत तारों से बाँधे है जग को,
मैं भी बन्दी,
मैं सोच रहा हूँ--
यह सुनील आकाश आज यदि और कहीं
तो दिखलाए कोई मुझको!