भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
खुल कर गिरती है / सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"
Kavita Kosh से
खुल कर गिरती है
जो, उड़ती फिरती है।
ऐसी ही एक बात चलती है,
घात खड़ी-खड़ी हाथ मलती है,
तभी सह-सही दाल गलती है
(जो)तिरती-तिरती है।
काम इशारा नहीं आया तो
जैसी माया हो, छाया हो।
मुसकाया, मन को भाया जो,
उससे सिरती है।
विगलित जो हुआ दाप से दर
प्राणों को मिला शाप से वर;
गिरि के उर से मृदु-मन्द्र-स्वर,
सरिता झिरती है।