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खूँ के दरिया में जब रंगों का गोता लगता है / 'सज्जन' धर्मेन्द्र
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ख़ूँ के दरिया में जब रंगों का गोता लगता है।
रंग हरा हो चाहे भगवा तब काला लगता है।
मरहम मलकर न्याय समझता ठीक हुआ अब शासन,
लेकिन गहरा ज़ख़्म जहाँ होता टाँका लगता है।
भ्रष्टाचारी पेड़ ग़ज़ब है जड़ इसकी भारत में,
दूर विदेशों में जा के पर फल इसका लगता है।
नेताओं की भूख नहीं मिटती है अरबों खाकर,
मज़लूमों को दो मुट्ठी भरकर आटा लगता है।
खा-खाकर ज्यादा भारी भी मत हो जाना ‘सज्जन’,
केवल चार जनों का आख़िर में कंधा लगता है।