भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

खेचळ / सुनील गज्जाणी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

लुगाई, सूखै कूंवै मांय बार-बार
बाल्टी घाल‘र पाणी काढण रौ खेचळ करती ही।

किसाण,
बंजर खेत मांय बार-बार हळ चलावतौ हौ,
कै कठै खेत उपजाऊ होय जावै।

आदमी,
बार-बार आपरी छतड़ी खोलतौ हौ,
कै कठै छांट्या नीं होवण लाग जावै।

बूढै़ डोकरै रा पग कबर मांय लटक्या हा
पण सीखतौ बो वरणमाळा हौ।

उण टाबर री उमर ही-
पढण-लिखण अर खेलण-कूदण री
पण बण बो आदमी रह्यौ हौ।