Last modified on 17 अक्टूबर 2013, at 15:33

खेचळ / सुनील गज्जाणी

लुगाई, सूखै कूंवै मांय बार-बार
बाल्टी घाल‘र पाणी काढण रौ खेचळ करती ही।

किसाण,
बंजर खेत मांय बार-बार हळ चलावतौ हौ,
कै कठै खेत उपजाऊ होय जावै।

आदमी,
बार-बार आपरी छतड़ी खोलतौ हौ,
कै कठै छांट्या नीं होवण लाग जावै।

बूढै़ डोकरै रा पग कबर मांय लटक्या हा
पण सीखतौ बो वरणमाळा हौ।

उण टाबर री उमर ही-
पढण-लिखण अर खेलण-कूदण री
पण बण बो आदमी रह्यौ हौ।