खेतिहर / महेन्द्र भटनागर
(खेत। बीच-बीच मे फूस की पुरानी जर्जर झोंपड़ियाँ। दिन का जलता हुआ तीसरा प्रहर।
(किसान गुनगुनाता है)
उठाओ हल, चलाओ हल !
कि गरमी पड़ रही बेहद
(आकाश की ओर देखकर)
आज आकर ही रहेंगे
मेह के बादल !
चलाओ हल, चलाओ हल !
पत्नी से —
चलो तुम भी
उगानी है अरे मक्का,
अकेले बन न पाएगा
तुम्हारा चाहिए धक्का !
पत्नी —
(हैरान-सी होकर — )
मगर बिटिया
पड़ी बीमार है ज्वर से,
तुम्हें यह सूझता है क्या ?
दिखायी भी नहीं देता
कि वह बेहोश-सी कैसी
पड़ी चुपचाप
बोलो किस तरह उसको
अकेली छोड़कर जाऊँ ?
चढ़ाना है तुम्हें परसाद माता का
कहीं से आज पैसे चाहिए ही,
खेत को छोड़ो
कहीं से दाम की ऐसी जुगत सोचो
कि देवी पा सकें अब भेंट !
कि देवी पा सकें अब भेंट !
किसान —
बढ़ता जा रहा है ब्याज,
दस से सौ रकम हा,
हो गयी है आज !
पटवारी हमारे खेत पर हावी,
फ़सल सारी उसी ने ली
कराकर कोठरी खाली !
खड़े हैं हम लुटा कर घर,
भरे ये हाथ अपने झाड़कर !
फिर भी न देगा आज कोई भी
हमें टुकड़े ज़रा से हाय ताँबे के
वही तो धर्म का अवतार पटवारी
बताता है स्वयं को जो
भयंकर रूप धारण कर
हमें दुतकार देता है,
नहीं है आस कोई आज ऋण देगा !
बिटिया —
अरे हा !
माँ लगी है भूख
क्या होगा बचा कुछ दूध ?
(शांति ! बिटिया दूध का अभाव समझकर धीमे से)
पानी ही पिला दे, माँ !
(माँ पानी देती है। किसान आवेश और दृढ़ता के स्वर में)
अभी लाया रुको जी दूध... !
(विवशता के कारण कंठावरोध। पार्श्व-ध्वनि)
मेहनतकश उठो !
बलवान हो तुम,
हल चलाकर ही
उगा सकते अभी सोना,
मिटा दो आततायी का
सभी मिथ्या भरा टोना,
अटल विश्वास जीवन में
तुम्हारा हो सदा संबल,
उठाओ हल, चलाओ हल !
किसान — (चकित-सा)
धरती गा रही है गीत !
सुनता हूँ नया संगीत !
चलाओ हल,
चलाओ हल !:
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