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खेत प्रान्तर में / समीर वरण नंदी / जीवनानंद दास

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एक

बेहिसाब सम्राटों के राज्य में रहकर
अन्त में एक दिन जीव ने देखा-दो तीन युग के बाद
कहीं कोई सम्राट नहीं, विप्लव नहीं,
हल खींचने वाले बैल की निःशब्दता छायी रहती है खेतों की दुपहरी में।
बंगाल के प्रान्तर में अपराह्न आकर
नदी की खाड़ी में धीरे-धीरे घुलता है-
बेबीलोन, लन्दन का जन्म-मरण
उनके पीछे मुड़-मुड़कर देख रहा है बंगाल।

शाम को ऐसा कहकर एक कामुक यहाँ
मिलने आया अपनी कामिनी से,
मानव मरण पर उसकी ममी का गह्वर
एक मील तक धूप में बिखरा हुआ है।

दो

फिर शाम सिमट जाती है नदी की खाड़ी में
खेत में एक किसान पूरे दिन अपने बैलों के साथ जुता है,
शताब्दी तीक्ष्ण हो जाती है।
तमाम पेड़ों की लंबी छाया
बंगाल की भूमि पर पड़ रही है
इधर का दिनमान-इस युग की तरह अस्त हो गया है,

अनजान किसान चैत-बैशाख की संध्या विलम्ब देखकर
देखता रुकी हुई शाम
उन्नीस सौ बयालीस-सी लगती है
लेकिन क्या यह उन्नीस सौ बयालीस-सी ही है?

तीन

कहीं शान्ति नहीं, उसकी उदीप्ति नहीं,
एक दिन मरण है, इसलिए जन्म है,
सूर्योदय के साथ आया था खेत में-
सूर्यास्त के साथ चला गया है।

सूर्य उदित हेागा यह सोचकर गहरी नींद ले रहा है-
आज रात शिशिर का जल
प्रागैतिहासिक यादें लेकर खेल रहा है-
किसान का विवर्ण हल
हल के फाल से उभरे मिट्टी का अन्धेर ढेर।
एक चौथाई मील की तरह हो गयी है दुनिया
सारे दिन अन्तहीन काम करते हैं बंजर खेत
पड़ा हुआ है सत्य और असत्य।

चार

खून की विपुल धारा से अन्धा होकर भी किसी ने
पाया नहीं यहाँ त्राण,
बैशाख में दरार-सा
पृथ्वी भी आसमान
और कोई प्रतिश्रुति नहीं
केवल भूसे की टौरियाँ बिछी हैं दो-तीन मील दूर तक

फिर भी वे सोने की तरह नहीं,
केवल हँसुआ के शब्द पृथ्वी प्रक्षेषणों को भूलकर
करुण, निरीह, निराश्रय है।
और कोई प्रतिश्रुति नहीं।
जलचींटी के चली जाने पर शाम की नदी कान पातकर
अपने ही पानी का शब्द सुनती है,
जीवाणु से लेकर किसान, मनुष्य ने
विकास किया है क्या? निज विस्तार के लिए
भ्रान्ति और विलास छाये सम्पूर्ण नीले सागर में?
चैत, क्रूज, नाईन्टी थ्री और सोवियत वार्ता
युगान्तर का इतिहास पूँजी देकर वही कुलहीन महासागर का प्राण
जान-जानकर या नचिकेता-प्रचेता से लगातार
पहला और अन्तिम आदमी का प्रिय प्रतिमान
हो जाता है स्वाभाविक जनमानव का सूर्य लोक।