भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

खेलन चलौ बाल गोबिन्द / सूरदास

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

राग रामकली


खेलन चलौ बाल गोबिन्द !
सखा प्रिय द्वारैं बुलावत, घोष-बालक-बूंद ॥
तृषित हैं सब दरस कारन, चतुर चातक दास ।
बरषि छबि नव बारिधर तन, हरहु लोचन-प्यास ॥
बिनय-बचननि सुनि कृपानिधि, चले मनहर चाल ।
ललित लघु-लघु चरन-कर, उर-बाहु-नैन बिसाल ॥
अजिर पद-प्रतिबिंब राजत, चलत, उपमा-पुंज ।
प्रति चरन मनु हेम बसुधा, देति आसन कंज ॥
सूर-प्रभु की निरखि सोभा रहे सुर अवलोकि ।
सरद-चंद चकोर मानौ, रहे थकित बिलोकि ॥

भावार्थ:--बालकों का समुदाय द्वारपर आ गया, वे सब प्रिय सखा बुलाने लगे-बालगोविन्द खेलने चलो । हे चतुरशिरोमणि ! हम सब तुम्हारे सेवक, तुम्हारे दर्शन के लिये चातकों के समान प्यासे हैं, अपने नवजलधर शरीर की शोभा की वर्षा करके (वह शोभा दिखलाकर) हमारे नेत्रों की प्यास हर लो' कृपानिधान श्याम यह विनीत वाणी सुनकर मनोहर चाल से चल पड़े । उनके छोटे-छोटे चरण एवं हाथ बड़े सुन्दर हैं, वक्षःस्थल, भुजाएँ तथा नेत्र बड़े बड़े हैं । चलते समय उनके चरणों का प्रतिबिंब आँगन में इस प्रकार शोभा देता है कि उपामाओं का समुदाय ही जान पड़ता है । ऐसा लगता है मानो (आँगन की)यह स्वर्णमयी भूमि प्रत्येक चरण पर (चरणों के लिये) कमल का आसन दे रही है । सूरदास के स्वामी की शोभा देखकर देवता देखते ही रह गये, मानो शरद्-पूर्णिमा के चन्द्रमा को देखते हुए चकोर थकित हो रहे हों ।