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खेल जाते हैं जान पर आशिक़ / ग़ुलाम हमदानी 'मुसहफ़ी'

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खेल जाते हैं जान पर आशिक़
जान देते है आन पर आशिक़

कोई उन गालियों से टलते हैं
हम हैं तेरी ज़बान पर आशिक़

ख़्वारी उन आशिक़ों की वे जो होवे
तुझ से ना-क़दर-रदान पर आशिक़

ताज़ा आफऋत तो एक ये है कि हम
हुए उस नौ-जवान पर आशिक़

जान देने के सूद जानते हैं
हम हैं अपने ज़ियान पर आशिक़

इस क़दर गिरती है कहे तो ये बर्क़
है मेरे आशियान पर आशिक़

‘मुसहफ़ी’ गर तू मर्द-ए-कामिल है
दिल न रख इस जहान पर आशिक़