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खेल / फनी महांती / दिनेश कुमार माली

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रचनाकार: फनी मोहंती (1944)

जन्मस्थान: फकीरपड़ा, पुरी

कविता संग्रह: मानचित्र(1973), विदग्ध हृदय (1981), स्वयंवर(1981), प्रियतमा(1988), रूवि पाई केतोटि कविता(1989), माया दर्पण(1990) विषाद योग(1992), अहल्या(1996)


किसी की , न तुम्हारी मेरी , न मेरी तुम्हारी , बहुत दिनों से
मुलाकात हुई , हम दोनों एक दूसरे से बिछुड गए
हमारे सामने खींची हुई लक्ष्मण रेखा को अक्षरशः सही मानकर
अपना- अपना भाग्य समझकर सुख- दुख के दिन काटे।
सब कुछ ठीक- ठाक चलते समय किसी अज्ञात ग्रह से तुम
सुंदर परी की तरह उडकर मेरे सपनों में आई
बिखरे बिस्तर में सीधी कमर से मेरे नहीं उठ पाने के समय
मेरे गाल और कपाल को बहुत प्यार से सहलाया तुमने ।

मेरे जन्म के समय भाग्य-रेखा की तरह क्या तुम
मेरी हस्त रेखा बनकर आई थी ?
आधी लिखी कविता की पंक्ति की तरह
क्यों मेरे कानों के पास गूँज रही हो,?
जिसे पूरा करने के लिए शब्द, या सामर्थ्य नहीं है मेरी कलम में।

पूर्णाहूति होने से पहले तुम एक प्रज्ज्वलित अग्निकुंड हो
जिसमें डाला जाता हैं व्याधिग्रस्त अस्थायी शरीर का हरेक अणु परमाणु
सर्वनाशी जीवनयज्ञ की समिधा
क्या तुम ही हो कोहरे से धुंधलाए घर में चंपकवर्णी ?
बार-बार रूप, वेश बदलकर नाचती हुई डाकिनी की तरह
आती हो गला गोंटकर मुझे मार देने के लिए।

समय या राशि नक्षत्र अच्छे नहीं होने के समय आधी बनी
आधी टूटी मूर्ति की तरह क्यों आती हो मेरे सपनों में
और स्वप्न टूटने की अवस्था की पूर्व वेला में  ?
मजबूरीवश अर्थी उठाने वाले भाइयों की तरह हकबका कर आती हो
मुझे भस्मीभूत करने के लिए !

अगर तुम्हारे आने की खबर पता होती चालीस वर्ष पहले तो
मूढ़ प्रेमी की तरह क्या मैं यहाँ आकर बैठा रहता  ?
वेशभूषा बदलकर रमते योगी की तरह एक कमंडल पकड़कर
किसी परित्यक्त गुफा या श्मशानघाट में जाकर सिर छुपा नहीं लेता
किन्तुः क्या सहज में मुझे इस नर्क से मुक्ति मिल जाती  ?
एक पांव आगे बढ़ाकर दो पांव पीछे लौट आता हूँ ।

पक्षियों के उडते समय के दृश्य में विभोर हो रहा हूँ
पूर्ण चन्द्र रात्रि में झिलमिलाती पोखरी में शरीर भिगा रहा हूँ
बादलों की नाव में बैठकर नदी पार करने का मन बना रहा हूँ
कटी पतंग की तरह जडहीन किसी सघन
डाल में फड़फड़ा रहा हूँ,
कहीं न कहीं मैं तो तुम्हारे इंतजार में जिंदा हूँ।