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खोज / अनीता वर्मा
Kavita Kosh से
जितना जिया जाता है जीवन
उतने ख़तरों को पीछे छोड़ चुका होता है
उसके हाथ समय के भीतर प्रकट होते हैं
किसी झाड़ियों वाली पगडण्डी पर
काँटों से बनी हुई है यह देह
जिसकी ताक़त का अन्दाज़ा लगाना अब भी कठिन है
वह छीन लेती है ख़ुशी का कोई पल
जैसे यही हो सृष्टि की पहली खोज
सभी अकेले हैं
एक गोल घेरे में करते हुए क़वायद
जहाँ वे अपनी ढालें खोजते हैं
वे छिपते हैं शान्ति या संघर्ष के पीछे
एक पहाड़ पूछता है दूसरे पहाड़ का दुःख
एक विचार अपने ही बोझ से दबा हुआ रहता है
यहां कोई खिड़की नहीं है
फिर भी खुला रह जाता है कोई न कोई दरवाज़ा |