खोलेगा राज़ कौन तेरी काएनात के / मनमोहन 'तल्ख़'
खोलेगा राज़ कौन तेरी काएनात के
लाले पड़े हुए हैं यहाँ अपनी ज़ात के
यूँ रूई से ख़याल को रखता हूँ कात के
उड़ते फिरें रूएँ न कहीं मेरी बात के
सब मंुतज़िर हैं ऐसी किसी अपनी मात के
खुल जाएँ सब भरम किसी राह-ए-नजात के
सुनता हूँ मुझ से माँगती है मौत भी पनाह
वो परख़च्चे उड़ाए हैं मैं ने हयात के
ख़ुद को समेटने के बखेड़े में क्यँू पड़े
काहे को हो के रह न गए हादसात के
इन आँधियों पे ज़ारे चमन का तो कुछ न था
क़िस्से बिखर गए हैं मगर पात पात के
कम ये भी तो ख़लाओं में तख़्लीक़ से नहीं
जैसे महल किए है खड़े मुश्किलात से
इस से ज़्यादा रेत के तूफ़ान तूझ में हैं
झरने तेरी निगाह में जितने हैं ज़ात के
नौहा-कुनाँ अज़ल से अँधरों में हैं सदाएँ
ये दुख तो हैं सदाओं की बस एक रात के
टकराव बे-सबब जो नज़र और दिल का था
अफ़्साने सब ने घड़ लिए एक रात के
सच सच बता के ‘तल्ख़’ ये दिल की नवा में यूँ
कैसे किए हैं जम्मा ये दुख काएनात के