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खो गयी है सृष्टि / शब्द के संचरण में / रामस्वरूप 'सिन्दूर'

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दीप को जल में विसर्जित कर दिया मैंने!
इस अँधेरी रात में, यह क्या किया मैंने!

यूँ लगे, जैसे नदी में बह गया हूँ मैं
तीर पर, यह कौन बैठा रह गया हूँ मैं
एक क्षण, पूरे समर्पण का जिया मैंने!

मिट गया, अन्तर सुरभियों और श्वासों में
छोड़ यह तन, छिप गया सब कुछ कुहांसों में
अमृत से बढ़ कर, तृषा का रस पिया मैंने

खो गयी है सृष्टि, या- फिर खो गया हूँ मैं
जन्म के पहले प्रहर-सा, हो गया हूँ मैं
काल जैसे कुशल ठग को, ठग लिया मैंने!