भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

खो चुकी है हँसी, देख रोती हमें / मनोज मानव

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

खो चुकी है हँसी, देख रोती हमें,
भारती माँ मिली, शान खोती हमें।

देश में है चली आज कैसी हवा,
सैनिकों की नहीं फिक्र होती हमें।

देश में लूट की, भूख की बात जो,
नित्य काँटे हिया में चुभोती हमें।

जान जाये नहीं देश में भूख से,
चाहिए आज हीरे न मोती हमें।

रो रही मातु गंगा हमें दीखती,
क्यों नहीं दीखती पाप धोती हमें।

लाज खोने लगीं बेटियाँ देश में,
बात ये आँसुओं से भिगोती हमें।

देश की भक्ति की भावना एक जो,
आज भी एकता में पिरोती हमें।

+++++++++++++++++++++
आधार छन्द-स्रग्विणी (12 वर्णिक)
सुगम मापनी-गालगा गालगा-गालगा गालगा
पारम्परिक सूत्र-र र-र र