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खौफ़-ए-हक़ीक़त / रेशमा हिंगोरानी
Kavita Kosh से
ये मायाजाल…
महज़ ग़मों से है बुना,
और तो कुछ भी नहीं!
एक ज़ुल्मतकदा है,
जिसके अंधेरों में कहीँ,
छुपे हुए हैं अजनबी किसी के,
नाम-ओ-नुक़ूश!
क़रीब रहता है जो शख्स,
औ’ दिखता भी नहीं!
बस इक हुबाब सा,
उड़ता है,
टूट जाता है,
हाथ आने से वो,
पहले ही,
छूट जाता है!
मेरी दुनिया-ए-तस्सव्वुर का है फरेब,
कि वो,
कभी आएगा,
औ’ चुपके से मेरा हाथ पकड़,
मुझे भी अपने ही जहाँ में लिए जाएगा?
वही जहाँ,
जो हकीक़त के भी उस पार कहीं,
बसा हुआ है कहकशाँ के ही,
आँगन में कहीं!
कभी-कभी तो यूँ लगता है मुझे,
अगर कहीं जो मुकाबिल
मैं उससे हो जाऊँ,
तो हमेशा की तरह,
समझ सराब उसे…
मूँद ही न लूँ आँखें!
अप्रैल 1996