भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
ख्वाब मेरे भटकते रहे रात भर / महेश कटारे सुगम
Kavita Kosh से
ख्वाब मेरे भटकते रहे रात भर ।
नींद के सुर उलझते रहे रात भर ।
प्रश्न वेताल बनकर कसकते रहे,
बोझ बनकर लटकते रहे रात भर ।
सुख के साये गले से नहीं लग सके,
हाथ मेरा झटकते रहे रात भर ।
ज़ख्म जो भी दिए दोस्तों ने दिए,
याद बनकर खटकते रहे रात भर ।
मैं पकड़ता रहा हर ख़ुशी का लम्हा,
हाथ से वो रपटते रहे रात भर ।