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गंगा सागर / जयशंकर प्रसाद

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प्रिय मनोरथ व्यक्त करें कहो
जगत्-नीरवता कहती ‘नहीं’
गगन में ग्रह गोलक, तारका
सब किये तन दृष्टि विचार में
पर नहीं हम मौन न हो सकें
कह चले अपनी सरला कथा
पवन-संसृति से इस शून्य में
भर उठे मधुर-ध्वनि विश्व में
‘‘यह सही, तुम ! सिन्धु अगाध हो
हृदय में बहु रत्न भरे पड़े
प्रबल भाव विशाल तरंग से
प्रकट हो उठते दिन-रात ही
न घटते-बढ़ते निज सीम से-
तुम कभी, वह बाड़व रूप की
लपट में लिपटी फिरती नदी
प्रिय, तुम्हीं उसके प्रिय लक्ष्य हो
यदि कहो घन पावस-काल का
प्रबल वेग अहो क्षण काल का
यह नहीं मिलना कहला सके
मिलन तो मन का मन से सही
जगत की नीव कल्पित कल्पना
भर रही हृदयाब्धि गंभीर में
‘तुम नहीं इसके उपयुक्त हो
कि यह प्रेम महान सँभाल लो’
जलधि ! मैं न कभी चाहती
कि ‘तुम भी मुझपर अनुरक्त हो’
पर मुझे निज वक्ष उदार में
जगह दो, उसमें सुख में रहें’