गंधी बनी अमराई / बुद्धिनाथ मिश्र
भाँति-भाँति के इत्र बेचती
गन्धी बनी आज अमराई ।
महुए के रस में घुलते
सेमल के फाहे
चुनते-चुनते भटक गए
भोले चरवाहे ।
एक फूल रजनीगन्धा का
साँझ-सकारे
चैता की बहती स्वर-
लहरी में अवगाहे ।
नयन-नयन में धँसती जाती
तरुण कोपलों की अरुणाई ।
कुलदेवी की बाँह बँधे
‘सपता’ के डोरे
बनजारे की बाट रोकते
हरे टिकोरे ।
नाहक धूम मची विप्लव की
गाँव-गाँव में
वात्याचक्र जिधर उन्मद
गज-सा मुँह मोड़े ।
छीन लिया सर्वस्व नीम ने
देकर एक डाल बौराई।
झरते पत्तों से चिपकी
वे रस की बातें
लिखती रहीं जिन्हें गुपचुप
पिछली बरसातें ।
कुसमय सुलग उठी उत्कण्ठा
पुनर्मिलन की
पानी मोल बिक गई ये
चाँदी की रातें ।
दर्द उठा कुछ मीठा-मीठा
बढ़ी उदासी की गहराई ।
सहलाते हौले-हौले
पुरवा के झोंके
पर्त उधेड़े यादों की
कोयल बेमौक़े ।
बाग़-बग़ीचे बने
सदावर्ती मदिरालय
कौन कहाँ तक अपने
प्यासे मन को रोके !
बार-बार नीले दर्पण में
एक परी डूबी-उतराई ।