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गंध के हस्ताक्षर / योगेन्द्र दत्त शर्मा
Kavita Kosh से
उतरे नभ से भीगे सपने
होकर हरे-हरे!
हवा भीगते पत्तों की
जब खोल गई पर्तें
सूखे मौसम ने बांचीं
अनुबंधों की शर्तें
मन पर होने लगे, गंध के
हस्ताक्षर गहरे!
बांस-वनों में सौरभ की
गगरी-सी औंध गई
सूने मन में अनजानी
बिजली-सी कौंध गई
चंदन-वन के सीमांतों से
खुले घने पहरे!
ओस ऋचाओं-सी आ-आकर
सांसों पर बिखरी
प्राणों की मधु-कल्प शृंखला
और अधिक निखरी
बनजारे-से दिवस, सुबह के
तट पर आ ठहरे!