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गंध नमस्कार की / रमेश रंजक

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झुकी कहीं फूलवती वेणी कचनार की
चौतरफ़ा फैल गई गंध नमस्कार की ।

आँगन-सा लीप गई
चंचल आकृतियाँ
मौसम ने अँजुरी भर
सौंपीं स्वीकृतियाँ
अपनापन घोल गई संध्या शनिवार की ।

छू-छू संजीवनी
हवाओं के झोंके
सोते से जगा गए
गीत धमनियों के
तन्द्रा-सी टूट गई अनबोले तार की ।