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गऊ जैसी लड़कियाँ / संजय कुंदन

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अब भी कुछ लड़कियाँ
गऊ जैसी होती थीं

हर बात में हाँ कहने वाली
मौन रहकर सब कुछ सह लेने वाली
किसी भी खूण्टे से चुपचाप बन्ध जाने वाली

हमारी संस्कृति में
सुशील और संस्कारी कन्याओं के
यही सब गुण बताए गए हैं

गऊ जैसी लड़कियों के माँ-बाप
गर्व से बताते थे
कि उनकी बेटी गऊ जैसी है

वे निश्चिन्त रहते थे
कि उनकी नाक हमेशा
ऊँची रहेगी
क्योंकि उनकी बेटी गऊ जैसी है

वे गऊ जैसी लड़कियाँ
इतनी सीधी थीं कि
समझ नहीं पाती थीं कि
उनके घर के ठीक बग़ल का
एक इज़्ज़तदार आदमी
जिसे वह रोज़ प्रणाम करती हैं
असल में एक शिकारी हैं
वे तो यह भी नहीं भाँप पाती थीं
कि अपने पति की नज़र में वे दुधारू नहीं हैं
उनकी दुनिया इतनी छोटी थी
कि उन्हें यह भी नहीं पता होता था
कि गायों की रक्षा के लिए
गली-गली में बन रही हैं सेनाएँ

जब उनमें से किसी के चेहरे पर
तेज़ाब फेंका जाता
या किसी पर किरासन तेल उड़ेला जाता
या किसी के कपड़े फाड़े जाते
तब वह गाय की तरह ही रम्भाती थी
बस, थोड़ी देर के लिए

गौरक्षकों तक नहीं पहुँच
पाती थी उसकी आवाज़ ।