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गगनभेदी रथ पर / रवीन्द्रनाथ ठाकुर / सिपाही सिंह ‘श्रीमंत’
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गगन भेदी रथ पर
आपन धाजा फहरावत,
देख रे देख, ई के आइल बा?
उहाँ देख राह पर, उहे हउवें उहे!!
दउर के आव, दउर के,
उनका रथ के डोरी खींचे के होई।
घर का कोना में लुका के,
कहाँ बइठल बाडे़?
भीड़ में समा के केहूंगईं
आपन जगह बना ले।
घर के तोर कवन काम बाकी बा?
ऊ सब आज भुला देवे के होई।
तन-मन के सकल शक्ति से,
तुच्छ प्राण के माया छोड़ के,
खींच रे, रथ के डोरी खींच!
अँजोर में, अन्हार में, जंगल में, परबत पर
खींच ले चल, रथ के डोरी खींच!!
रथ के चक्का घूम रहल बा घर्घर,
छाती में सुनात बा कि ना तोरा ऊ स्वर?
तोरा खून में प्राण लहरात बा कितना?
मन मरण जयी गीत गावत बा कि ना?
तोर आकांक्षा, विस्तृत भविष्य कावर
अति प्रबल वेग से धावत बा कि ना?