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गज़र आधी रात का (कविता) / राजेन्द्र प्रसाद सिंह

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जेल से उठ,
गाँव-घर तक
गूंजता फिर
गज़र आधी रात का
पुनः बचपन के बथानों में
खूँदते मिट्टी मवेशी,
खींचते खूँटे,
लगे हुँकारने
चुप खड़े कुत्ते-स्यार
लगे आकनाने.
बूट, कुंदों, लाठियों की मार से चीखी चमरटोली,
देहरी से
सड़क तक फिर,
फिर गरजता
शेर वह फौलाद का.
फिर जवानी की हवाओं से
यों गरम पंखे हो रहे
जैसे कि चिनगी
बाँटती हो साँस;
शहरी कटा आकाश,
-नारों का धुआँ
कोर्ट, थाने, थैलियों के प्रेत को ललकारते झंडे;
शोर-गुल से
चुप्पियों तक
झूलता फिर
लौह पंजा बाज का.
बन्द या उढ़के किवाड़ों पर
दस्तकें हों या पुकारें,
भीतरी दहशत
न घर की टूटती;
-सिर्फ चिन्ता कूटती,
कैसे गुजारें?
गली, नुक्कड़, चौक से अब पक्षियो-सी लौटती आंधी;
पसलियों से
शस्त्र तक फिर
डोलता फण
लाल होते नाग का