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गड़गड़ाते गगन छाए मेघ / केदारनाथ अग्रवाल

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गड़गड़ाते,
गगन-छाए
मेघ
सूरज को छिपाए, घनघनाते;
पग,
पवन के
संभ्रमण के,
तड़ित-ताड़ित, डगमगाते;
व्यंजना में चिंतना के
खड़े पादप-
आम-इमली और महुवा-
दौंगरा में
भी जुड़ाने को
चिलकते-छटपटाते
टिंहुकती,
टेरती, उड़ती टिटहरी
चीरती अविराम नभ को;
काल के कण-क्षण
सुबुकते,
दर्दमर्दित तिलमिलाते;
ललक-लोचन
ग्रामवासी
मेघ मंडल को
निरखते
ओठ सूखे, तप्त खोले,
विकल झुलसे, बुदबुदाते
व्योमवासी
वारिधारा को
विनय से-प्रार्थना से
अर्चना से झरझराने को
बुलाते।

रचनाकाल: ०२-०६-१९७५