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गढ़ गया होगा उसे भी क्या सियासी चाक है / विनय कुमार
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गढ़ गया होगा उसे भी क्या सियासी चाक है।
संतरे की तरह उसका भी ज़हन पुरफाक है।
लोग हैं बेताब नदियों की तरह यह जानकर
यह खुला बाज़ार सागर की तरह मुष्ताक़ है।
सूप से नाखून लेकर चढ़ चली आदिम हवस
आज खतरे में लखन की खानदानी नाक है।
बच नहीं पाया मैं निगाहे आईना से आजतक
आईना मासूम दिखता है मगर चालाक है।
नाक कटते ही शहर में इस क़दर रुतबा बढ़ा
नाकवालों की नज़र में भी उसी की धाक है।
तैरना सीखा पतंगों से मछलियों से नहीं
छोड़ उसका आसरा वह कागज़ी तैराक है।
काम आयेगा सफ़र में क्या उसे मालूम है
जेब में चाकू, ज़ुबां पर दौलते अखलाक़ है।
हवा के जितना पुराना है समय का डाकिया
और साँसों की तरह ताज़ा समय की डाक है।