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गणपति का विवाह! / प्रतिभा सक्सेना

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ऋद्धि-सिद्ध हेतु वर की खोज -,बर खोजन चले विधना! दुइ कन्या गुनखानी !
'ऋद्धि-सिद्धि दोउ जुड़वाँ बहिनी अब लौ क्वाँरी रहलीं,
का सों का भइल सँजोग ',विधात्री आकुल विधि सों कहिलीं !
'सुघर सयानी दोनिउ बहिनी बहुत जतन सों पालीं,
सुर नर देखि सिहावैं न जनौ केहिके भाग जगइलीं!
सब विध सुन्दर कल्याण!'

बर खोजन की ठानि मनहिं मन ठाड़े भै बिधना,
लायक लरिका होय न जने दौरन परि है केतना !
सतुआ बाँध निकलि गे घर ते काँधे डारि अँगौछा,
बाँधि गठरिया धरि लीनो तिन संग डोर औ' लोटा!
मन में चिन्त समानी!

सूरज तपत ,चंद्रमा रोगी अइसन बर ना चहिले,
पवनदेव को ठौर-ठिकाना केऊ जान न पइले!
देवराज के देखि चरित्तर मुँह घुमाइ हँस रहिले,
पुरुसोत्तम हरि सेसनाग परि छीरसिन्धु में सोइले!
शिव-शंकर अवढर दानी !तौन बर खोजन...

सोर भयो सब लोकन में बर खोजन विधना आय़ेल
ऋषि-मुनि ललचैं रिधि-सिधि कारन ,जप-तप सबै हेराइल,
कौन उपाय मिलहि कन्या, जागी हिय अस अभिलासा,
भारी सोच कौन विध जीत लेहुँ विधि को बिसबासा!
मति सबहिन केर हिरानी !तौन बर खोजन...

तीनहुँ लोक कउन अस जन्म्यो कन्यन के संजोगे,
घूमि,घूमि थक गइले विधना कोउ न लग अनुरूपे!!
आइ देवता सारे सजि-बजि , बढि आपुन गुन बरनै!
विधि विसमित अब हँसैं कि रोवैं ,सिर पीटत खिसियौंने!
का सों कहों कहानी!
तौन बर खोजन...

देवि सुरसती दया लागि -' काहे कैलास न गइले,
दुइ कुमार गिरिजा के अब तो ब्याहन लायक भइले
अन्नपूरणा सासु ,बहुरियाँ रिधि-सिधि अनुपम जोगा,
अरपन करि निज कर सों नरियल तुरतै करो बरीच्छा!
आपुन मन में ठानी!'
तौन बर खोजन...
देखि नारियल ,कुँवर मुदित भे ,हर-गिरजा हरषइले,
घूम मचिल सारे शंकर गण ताली दै-दै नचिले!
गौरा हँस चुप रहलीं ,बोलेल विधना ते तुरतै हर,
'पहिल परिच्छा होइल करबे काहू को केहि का बर!
दोउ कन्या गुनखानी!'
तौन बर खोजन...
षड्मुख -गणपति देखि आँख भऱ विधना सब सुख लहिले,
कोउ ब्याहिल पीछे तो का , कोऊ ब्याहिल पहिले!
'परिकरमा तीनिहुँ लोकन करि जौन पहिल जस लहिले
 समरथ होइल , गुणमंती कन्या सो निहचय पइले!
इहाँ न कोउ मनमानी !' जबै बर खोजन चले बिधना!

तौन बर खोजन...