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गतिरुद्ध / नरेन्द्र शर्मा
Kavita Kosh से
आज मैं गतिरुद्ध हूँ!
मिला सीमाहीन अंतर, खिंचीं सौ मरजाद बाहर!
कठघरे में बंद, कोड़ों से पिटा है हृदय-नाहर!
पर्वतों से मथे फेनिल सिन्धु-सा विक्षुब्ध हूँ!
धँस रहा हूँ रसातल में, फँसा बाड़व की भँवर में,
और आहत अहं, अहि-सा पैठता गहरे विवर में!
कठिन धन्वा से छुटा टूटा प्रखर शर क्रुद्ध हूँ!
मानसर का सलिल सूखा, पंक-सा उर भी गया फट,
कल्पना श्यामा सलोनी खोजती अन्यत्र पनघट!
अंक-घट का ठीकरा मैं, दलित और अशुद्ध हूँ!
स्वप्न मिटते--मिट रहा मैं, किन्तु क्या नाचीज़ हूँ मैं?
मिला मिट्टी में, गला जो, नए भव को बीज हूँ मैं!
दैन्य में मैं विभव हूँ, मैं बुद्धिजीव अबुद्ध हूँ!