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गन्तव्य / महेन्द्र भटनागर
Kavita Kosh से
यह जीवन का गन्तव्य नहीं !
निष्फल क्षय-ग्रस्त कराहों का,
इन सूनी-सूनी राहों का,
असफल जीवन की आहों का,
स्वप्न-निमीलित, मोह-ग्रसित यह
जाग्रत-उर का मन्तव्य नहीं !
वैयक्तिक स्वार्थों पर निर्मित ,
आत्म-तुष्टि के साधन सीमित,
पथ पार्थिव सुख पर कर लक्षित,
जन-मन-रागों से दूर कहीं
मानवता का भवितव्य नहीं !
बीते युग पर पछताने का,
या याद पुरानी गाने का,
है ध्येय न आज ज़माने का,
युग की वाणी से रही विमुख
एकांत-कला क्या भव्य कहीं ?
1952