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गन्ध बावरी हुई / मधु प्रधान
Kavita Kosh से
सांझ हुई
मन के आँगन में
गीत विहग उतरे
दूर क्षितिज पर रंग भर गये
बादल फिर अनायास
अनजाने ही कोई आ गया
मन के कितने पास
मुग्धा तरुणाई
माथे पर
कुंकुम तिलक धरे
साधों की पायल झनकी तो
अंगनाई हुलसी
दीप रखे चौरे पर कोई
महक गई तुलसी
मेंहदी और
महावर के रंग
हुये बहुत गहरे
गन्ध बावरी हुई कली से
बांधे नहीं बंधी
ठहर-ठहर कर चली लजीली
सकुचाई ठिठकी
स्वेद- कम्प
रोमांच -पुलक
तन-मन में लहरे