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गम की आग बड़ी अलबेली कैसे कोई बुझाए / कलीम आजिज़
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ग़म की आग बड़ी अलबेली कैसे कोई बुझाए ।
अन्दर हड्डी-हड्डी सुलगे बाहर नज़र न आए ।
एक सवेरा ऐसा आया अपने हुए पराए,
इसके आगे क्या पूछो हो आगे कहा न जाए ।
घाव चुने छाती पर कोई, मोती कोई सजाए,
कोई लहू के आँसू रोए बंशी कोई बजाए ।
यादों का झोंका आते ही आँसू पाँव बढाए,
जैसे एक मुसाफ़िर आए एक मुसाफ़िर जाए ।
दर्द का इक संसार पुकारे खींचे और बुलाए,
लोग कहे हैं -- ठहरो-ठहरो, ठहरा कैसे जाए ।
कैसे-कैसे दुःख नहीं झेले, क्या-क्या चोट न खाए,
फिर भी प्यार न छूटा हम से आदत बुरी बलाय ।
आजिज़ की हैं उलटी बातें कौन उसे समझाए,
धूप को पाग़ल कहे अन्धेरा दिन को रात बताए ।