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गम रो रो के कहता हूँ कुछ उस से अगर अपना / क़लंदर बख़्श 'ज़ुरअत'

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गम रो रो के कहता हूँ कुछ उस से अगर अपना
तो हँस के वो बोले है मियाँ फिक्र कर अपना

बातों से कटे किस की भला राह हमारी
गुर्बत के सिवा कोई नहीं हम-सफर अपना

आलम में है घर-घर खुशी ओ ऐश पर उस बिन
मातक-कदा हम को नजर आता है घर अपना

हर बात को बेहतर है छुपाना ही कि ये भी
है ऐब करे कोई जो जाहिर हुनर अपना

क्या क्या उसे देख आती है ‘जुरअत’ हमें हसरत
मायूस जो फिर आता है पैगाम-बर अपना