गया की माटी में ज्ञान का ढेला / संजय तिवारी
जीवन में तुमने देखा
केवल करुण क्रंदन
न जान सके
जीवन का स्पंदन
पुंसवन से
तुम्हारे प्राकट्य तक
जिस महा माया ने
नौ माह तक अपने गर्भ में सुलाया
अपना रक्त देकर तुम्हें जिलाया
धरती पर आने योग्य बनाया
खुद रो रो कर तुम्हें हंसाया
क्या कुछ भी नहीं था तुम्हारा फर्ज
कि उतार सकते
महामाया की कोख का कर्ज
मुझे न सही माता को तो बताते
पिता को जगाते
अपनी इच्छा तो बताते
फिर चले जाते
तुम्हें कोई नहीं रोकता
कभी नहीं टोकता
जीवन को जीवन में समझ पाते
जो कहना था सब कह जाते
नहीं करना था तो कभी न करते
सृष्टि से संवाद
नहीं होता कोई विवाद
सच बताना
गयासुर की पीठ पर
प्रेतशिला की भीत पर
तुमने क्या पाया?
क्या उस पीपल के भी हो सके
जिसने दिया तुम्हें छाया?
तुमने जो खड़ा किया
धर्म का चक्र
सनातन को करने वक्र
सनातन का तो कुछ न बिगड़ा
पर समाज को ढोना पड़ा
अपनी बहुत सी थाती को खोना पड़ा
न जीवन सुधार सके
न हल कर सके कोई प्रश्न
तुम्हारे अनुयायी भले मनाएं जश्न
गया की माटी में ज्ञान का ढेला
जहा लगा करता है केवल पितरो का मेला
मर्त्यलोक जहाँ से होता है शुद्ध
वहाँ ज्ञान नहीं बिकता
केवल श्रद्धा मिलती है बुद्ध।