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गरब / राजू सारसर ‘राज’
Kavita Kosh से
भौतिकता रै
इण जुग में
अरथ रो अनरथ
सगळै ई सुआरथ
जणां ई
पाखाण-पूतळी रै
चै’रै माथै
सबदां रा बीज
भावां रा बिरवा
कद उगा सकै
बगत रा
सणण-सणण
बै’वता सोकरड़ा
इण भावसूनता रो
छरण कद कर सकै
मद री तपस सूं
आख्यां रो पाणी
उड जावै
भाप बण’र
मारै गुमेज ठोकर।
झुकी नी सकै
क्यूं मिजळी आंख्यां
टेडा भांपड़
कसैड़ी मुठ्यां
कमीज रै कलफ-सो
कड़क चै’रौ
आतमा माथै
अै’म रो पै’रौ
नीं ऊगण देवै
चै’रै माथै
संवेदणा रा भाव-बूंटा
इण तरै
पाखाण बणानौं
होवै घाटै रो कार
खुद सारू
अर दुजा सारू ई।
राखजै याद
थारो हियौ
बण्यौ जावै बाजार
स्सौ कीं बेचण नै त्यार
पण
संवेदणा मति बेच
इणनैं बचा
ओ परमाण है
थारै मिनख होवण रो
नीतंर अणघड़ पत्थरां अर
बंजड़-भोम नैं
कोई नीं पूजै।