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गरमी (ग्रीष्म) / पतझड़ / श्रीउमेश
Kavita Kosh से
लह-लह लूक उठै गरमी में, झुलसै जखनी दिसा दिगंत
झरकै छेलै घास तलक, रंगीन बहारोॅ के छेॅ अन्त॥
राही लथपथ घामोॅ सें छेॅ, छाया में सुस्ताबै छै।
माल-मवेशी धुरी फिरीकेॅ अड्डा यहीं जमावै छै॥
जीभ काढ़लें कुत्ता ऐलोॅ जीभी सें चूऐ छै घाम।
हमरै छाया में पाबै छै जीव-जन्तु कतेॅ विश्राम॥
बैसाखोॅ जेठोॅ में यै ठॉ पनसल्ला लागै छेलोॅ।
बूटोॅ के औंकरी खाय केॅ लोगें पानी पीयै छेलोॅ॥
ककड़ी-तरबुज्जा खीरा के लागै छेलोॅ यहां बजार।
सस्तोॅ-मँहगोॅ कीनै छेलोॅ लोगें गरमी के सिंगार॥
यै कड़कड़िया रौदी में, सूनोॅ छेलोॅ सौंसे वहियार।
लेकिन गम-गम करै हमेसा हमरा छाया के दरबार॥