गरीबा / गहुंवारी पांत / पृष्ठ - 7 / नूतन प्रसाद शर्मा
कवि मिथलेश रहत अर्जुन्दा, सम्मेलन मं रखथय धाक
रचना हेर पढ़त हे सुर धर, मन ला मोहत मीठ आवाज –
कौन जानता था कि ऐसा गजब हो जायेगा
पैगाम रोशनी का भी अंधकार लायेगा।
चिपका उदर नंगा बदन तू जीता रहा किसान
बोएगा तू काटेगा तू पर मान तू न पायेगा।
कोकिलोंे की लाश पट जायेगी अमराई भर
आम की हर डाल पर उलूक फाग गायेगा।
भाइयों पर भाइयों के देख मजबही सितम
नर्क में बैठा हुआ महमूद गजनवी शर्मायेगा।
रोशनी तम को पर चीर आयेगी – निसार
आज नहीं कल सही वह दिन जरुर आयेगा।
हे विद्वान रामेश्वरबैष्णव, हे रौशन साहित्य मं नाम
ओहर रचना ला हेरिस अउ, डारत हे श्रोता के कान –
आगी हा अमरित कस लागय वा रे अप्पत जाड़
डोकरा पानी देख के भागय वा रे अप्पत जाड़।
दांत मंजीरा बनगे होगे हूहू हूहू गाना
गोदरी ला छोड़े नइ भावय वा रे अप्पत जाड़।
स्वेटर कोट रजाई मं दिन रात लदे मनखे
कनचप्पी बिन पग नइ ढारय वा रे अप्पत जाड़।
लइका ला छेमाही परीक्षा के लदके हे भूत
तब ले भिनसरहे नइ जागय वा रे अप्पत जाड़।
झार मुहल्ला मन मं कइसन झगरा फदके हे
जउने तउने कूदय फांदय वा रे अप्पत जाड़।
अइसन मं कवि सम्मेलन के आए हे नेवता
बैष्णव जी गउकिन नइ जावय वा रे अप्पत जाड़।
कवि के नाम मुकुंदकौशल हे, शहर दुर्ग मं करत निवास
ओहर कविता ला हेरिस अउ, सुर के साथ करत हे पाठ-
“हाथ मां अंइठी पांव मं पैरी, कनिहा मां चरलड़िया करधन
गरा मं पहिरे सुर्रा पुतरी, सूंता माला पांव मां पैजन
हाथ के अंगरी मन मां मुंदरी, बिछिया पांव के अंगरी मन मां
छत्तीस रंग के सुघ्घर लुगरा, फबै जेखर कंचन कस तन मां
छत्तीस गहना देंह मां साजे, छत्तीस चूरी खन खन बाजै
मांग मं सेंदुर छत्तीस बुकनी, मुड़ मं बोहे चांउर टुकनी
जेखर हे किरपा बड़ भारी, बंधुवा बेटा के महतारी
छत्तीस नदिया छत्तीस तरिया, छत्तीस ठिन मंदिर माढ़े हे
छत्तीस ज्ञानी ध्यानी पंडित, छत्तीस ठिन मंदिर माढ़े हे
जिंहा राम बड़का अउ छोटे लछमन, नान्हे मन बनवारी
महापुरुष मन के उपजइया, जै हो मोर भुंइया महतारी
इहां मयारुक गुरतुर गुरतुर, बोली के महिमा अड़बड़ हे
नांव घलो कतका सुंदर, मोर महतारी के छत्तीसगढ़ हे
देख सकै झन तोला, आंखी फार के कउनो बैरी
अम्मर हे तोर चूरी दाई, अम्मर हे तोर पैरी।”
आये श्यामलाल चतुर्वेदी, बिलासपुर मं करत निवास
ओहर कविता ला हेरिस अउ, मुड़ ला हला करत हे पाठ-
जब आइस बादर करिया।
तपिस बहुत दू महिना तउन सुरुज मुंह तोपिस फरिया।
जउन रंग ला देख समे के, पवन जुड़ाथे तिपथे
जाड़ के दिन मं सुर्रा हा, आंसू निकार मुंह लिपथे
गरम के महिना झांझ होय, आगी उलझय मनमाना
तउने फुरफुर सुघर चलिस, जइसे सोझुवा जनजाना
राम भेंट के सबरिन बुढ़िया कस मुखयाइस तरिया।
जब आइस बादर करिया।
जमों देंह के नुनछुर, पानी बाला सोंत सुखागे
थारी देख नानकुन लइका, कस पिरथिवी भुखागे
मेंघराज के पुरुत पुरुत के, उझलत देखिन गुढ़ुवा
“हां ददा बांचगे जीव, कहिन – सब डउकी लइकन बुढ़ुवा
नइ देखेन हम कभू ऐसो कस, कुछुक न पुरखा परिया।
जब आइस बादर करिया।
रात कहय अब कोन दिनों मं, घपटय हे अंधियारी
करिया हंड़िया केरवंछहा कस, जमों कती अंधियारी
सुरुज दरस के कोनो कहितिन, बात कहां अब पाहा
हाय हाय के हवा गइस, चौंगिरदा ही ही हा हा
खेत खार मं जगा जगा सरसेत सुनांय ददरिया।
जब आइस बादर करिया।
का किसान के सुख कइहा, बेटवा बिहाव होय जइसे
दौड़ धूप सरजाम सकेलंय, काल लगिन होय अइसे
नांगर बिजहा बइला जोंता, नहना सुघर तुतारी
कांवर टुकना जोर करंय, धरती बिहाव के त्यारी
बर कस बिजहा छांट पछिनय, डोला जेकर कांवर
गीद ददरिया भोजली के, गांवै मिल जोड़ी जांवर
झेंगुरा धरिस सितार बजाइस, मिरदंग बेंगवा बढ़िया
बजें निसान गरज बिजली, छुरछुरी चलाय असढ़िया
राग पाग सब माढ़ गइस हे, माढ़िस जम्मों घरिया।
जब आइस बादर करिया।
हरियर लुगरा धरती रानी, पहिर झमक ले आइस
कोतरी बिछिया मुंदरी कस, फेर झुनुक झेंगुरा गाइस
कुंड़ के चौंक पुराइस ऐती, नेंग मा लगे किसानिन
कुछू पूछिहा बुता के मारे, कहिथें – हम का जानिन
खाली हाथ अकाम खड़े, अब कहां एको झन पाहा
फरिका तारा लगे देखिहा, जेकर घर तूं जाहा
हो गय हे बनिहार दुलम सब खोजय खूब सफरिया।
जब आइस बादर करिया।
पहरी उप्पर जाके अइसे, बादर घिसलय खेलय
जइसे कल्लू पारबती संग, कर टेमचुल ढपलेय
मुचमुचही के दांत सही, बिजली चमकय अनचेतहा
जगम ले आंखी बरै मुंदावै, करय झड़ी सरसेतहा
तब करीब के कलकुत मातय छान्ही तरतर रोवय
का आंसू झन खंगै समझ अघुवा के अबड़ रितोवय
अतको मा मुखयावै ओहर, लोरस नवा सके के
अपन दुख के सुरता कहां? भला हो जाय जमे के
सुख संगीत सुनावै – तरि नरि ना मोरि ना अरि आ।
जब आइस बादर करिया।