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गरीबा / राहेर पांत / पृष्ठ - 11 / नूतन प्रसाद शर्मा

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केंवरी किहिस -”अतिक रोवत हस, खुद ला समझत निहू लचार
तंय पहिली के व्यथा ला बोलत, शोषण भेद करय जब राज।
पर अब जनता राज चलावत, सब झन पाय अपन अधिकार
सुन्तापुर मं तुम्हरो हक हे, तुम बस सकथव खमिहा गाड़।
मुम्बई जाय जरुरत नइये, इंहचे कमा पेट भर खाव
फगनी दुखिया मन सुख पावत, ओतका सुख तुम्मन तक पाव।”
बोधनी टहलू पा आश्वासान, लग थिरबहा बिलमगें गांव
अपन काम ला पूरा जोंगत, लेत दुनों झन सुख के लाभ।
सुन्तापुर मं हांका होवत – सुन लव गांव के सब इंसान
तुम्मन खुद शासक जनता अव, करतब कर अमरव अधिकार।
जतका काम के भाग ला पावत, पूरा करव चिभिक के साथ
भ्रष्टाचार अगर तुम करहू, तब निश्चित पाहव दुख दण्ड।
जतका अस उत्पादन होवय, याने काम जतिक अस होय
ओतकिच के सच विवरण देवव, ताकि होय अवगत सच तथ्य।
अगर कागजी घोड़ा दउड़त, विवरण देवत निरवा झूठ
सुन्तापुर हा धोखा खाहय, ओकर लक्ष्य भविष्य हा नाश।
यदि आर्थिक स्थिति हा बदतर, तब फल हा मिल सकत खराब
श्रम कर सुम्मतराज ला लाये, अपन हाथ करिहव बर्बाद।”
अब कवि सुम्मत राज के बोलत बिल्कुल सत्य प्रशंस।
मनखे गांव उहिच हें लेकिन फूटत सुख के कन्सा।
उहां न शोषक अउ ना शोषित, ना पूंजीपति ना कंगाल
सब हक पाये एक बरोबर, जमों निभावत निज कर्तव्य।
भ्रष्टाचार कहां ले होवय, ओकर सब चुहरी हा बन्द
यदि चिटको अस घपला होवत, होत नियम मं तुरुत सुधार।
यदि मनखे पर रोग झपावत, ओकर हंसा ला चुन खाय
लेकिन तुरुत दवई मिल जावत, तंहने बच जावत हे जान।
शिक्षा पाय के मन नइ होवत, पर शिक्षा के उचित प्रबंध
सब मनखे मन कड़कड़ शिक्षित, तर्क रखत तेहर सच ठोस।
एको अदमी भूख मरत नइ, एको झन नइ बिगर मकान
सब कोई खाये बर पावत, सब झन घर मं करत निवास।
गांव बीच मं गउराचंंवरा, जे वाजिब मं पबरित ठौर
ओतिर बइठे हें मनखे मन, हेरत मन के जमों बिखेद।
धनवा अंतस खोल के बोलिस -”मंय हेरत सच बोली।
मंय पहिली के पुंजलग मनखे खुद ला समझंव ऊंचा।
सोचंव – सुम्मतराज हा आहय, गांव के हक मं सब धन मोर
तब नइ होवय मोर प्रतिष्ठा, सब सुख सुविधा तुरुत खलास।
पर शंका बादर अस छंटगे, सुम्मतराज जमों सुख देत
आवश्यक हा पूरा होवत, जीवन चलत सुखी निÏश्चत।
कातिक हगरू के संग बइठत, उंकर असन करथंव मंय काम
मोर देह हा पुष्ट जनाथय, श्रम ला देख भगत सब रोग।
पहिली अउ अभि मं जे अंतर, ओला मंय फोरत हंव साफ
उहिच आन मंय अउ दूसर मन, पर व्यवहार व्यवस्था भिन्न –
पहिली सब ला डर्हुवा धमका, अपन बात के स्वीकृति लेंव
पर अब वाजिब तर्क ला रखथंव, तब मनसे मन मानत तथ्य।
पहिली पर के हक ला लूटंव, पर के हक के अन ला खांव
पर अब अपन भाग पर रखथंव, राजबजन्त्री निज अधिकार।
भय ला देखा लबारी बोलंव, कपट चाल चल इज्जत पांव
निश्छल वाक्य प्रेम रखथंव अब, सद आदत ले पावत मान।
सुम्मतराज के नामे ला सुन, घृणा क्रोध कर हलय शरीर
पर अब ओकर जस गुन गावत, भ्रम के जल बहिगे धर धार।”
नेक गोठ हिरदे मं भींजिस, तंह ग्रामीण करिन स्वीकार
अपन व्यवस्था ला संहरावत, सुम्मत राज पात जयकार।
तब मुसकात गरीबा आथय, जेकर खांध गली मनबोध
एमन पुत्र सनम – धनवा के, पाठक याद करव सच शोध।
जेमन छत्तीस असन बइठतिन, लेकिन अब नइये कुछ भेद
रोटी बांट दुनों झन खावत, झींकत हें गरीबा के बाल।
भीड़ ला मुसकत कथय गरीबा -”तुम्मन करत अपन तारीफ
मगर लगत कनुवासी मोला, सच के पता लगत कर देर।
हम्मन अभी काम जोंगन अउ देवत रहन परीक्षा।
जब मनबोध गली बढ़ जाहंय – करहीं सत्य समीक्षा।
सुन्तापुर मं खुशी हे तइसे सुख पावंय हर प्राणी।
दारभात हा चुरगे तब कवि छेंकत अपन कहानी।

राहेर पांत समाप्त

गरीबा महाकाव्य की पूर्ण समाप्ति