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गर्द-ए-बे नियाज़ी में / अबरार अहमद

करो जो जी में आए
तोड़कर रख दो
है जो कुछ भी मेरे
दिल में या घर में
जिससे भी
निस्बत है कुछ मेरी
उसे कूड़े में फेंको
बारिशों में
गन्दगी के ढेर पर डालो
मुझे करना भी क्या है अब
कि अपनी ही किसी आवाज़ में गुम हूँ
ये रिश्ते भी कभी
ख़ुश रंग कपड़े थे
सजा करते थे हम पर
और इन्हें मैला भी होना था
उधड़ जाना था आख़िर को
यहाँ जो हम-दमी का वाहिमा है
अस्ल में ज़ँजीर है
जब्र-ए-मशिय्यत की, मशिय्यत की
कि कब कोई भी दिल
जा कर कभी धड़का किया है और सीने में
कि कब अकड़ी हुई गर्दन को
सजदे नर्म करते हैं
रऊनत, तिलमिलाहट है
हंसी आती है
ऐसी बे ठिकाना तमकिनत पर
रहम आता है
तो बस ये इल्तिफ़ात-ए-दाइमी
कुछ भी नहीं
माथे पे
गहराई तलक जाते
निशाँ से बढ़ कर
मदार ए वक़्त में
तन्हा ही चक्कर काटना
आख़िर निकल जाता है इंसाँ
और खो जाता है
गर्द-ए-बे नियाज़ी में