भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
गर्मियाँ दिन को उबालें / गीता पंडित
Kavita Kosh से
गर्मियाँ दिन
को उबालें हैं सुबह से
भोर को भी तो पसीना
आ रहा है
सूर्य भरकर
कांख में लो आग आता
हर सुबहा का
श्वास अग्नि में जलाता
कौन है
ऋतु का मसीहा आज देखो
बादलों का
राग लेकर गा रहा है
हैं चले ए, सी. दिवारें कुड़कुड़ातीं
झौंपड़ी तपते तवे-सी
छुनछुनातीं
किन्तु फिर भी है कोई
सबके लिए जो
अंक में
भरकर हवाएँ ला रहा है
भोर को भी तो पसीना
आ रहा है।