गर्व से कहते इंसान हैं… काश! / सरिता स्निग्ध ज्योत्स्ना
मैं ढूंढ रही थी
इस आभासी दुनिया में
इंसानियत का एक समूह
जिसके चेहरे पर
नहीं चमकता हो
किसी कायस्थ, ब्राह्मण, राजपूत,बनिए या दलित का
अति गर्वित-सा भाल
जिसके हुंकारित हाथों में नहीं हो
चटक भगवा ध्वज
या जिसकी अकड़ी मीनार के शिखर पर
नहीं लहरा रहा हो
हरियाला मज़हबी झंडा
मेरी उंगलियाँ थककर सो गईं
सर्च करते-करते गूगल पर
बीते कई दिनों से
सोच रही हूँ
मैं ही पागल या निरा नादान हूँ
अब तो सांझा चूल्हों के किस्से पुराने हो गए
लोग तब से अब कितने सयाने हो गए
नए नोटों पर मंगलयान इतराता हो तो क्या
हमारे गर्वित होने के सब बहाने
वही घिसे-पिटे अफ़साने रह गए
क्या करें
उन्हें गर्व होता है उधर
और इधर लज़्ज़ा शरमाकर
अंधेरे घर की सबसे भीतरी कोठरी में
मोटे पर्दे के पीछे
सोने का स्वांग रचाती है
सिसक-सिसककर हर रात रोती जाती है
लंबी-सी घूँघट के नीचे
सात जन्मों का आदर्श पत्नी-धर्म
बस यूँ ही निभाए चली जाती है!