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गर तुम्हें साथ मेरा गवारा नहीं / सतीश शुक्ला 'रक़ीब'
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गर तुम्हें साथ मेरा गवारा नहीं
मासेवा एक के कोई चारा नहीं
बिन तुम्हारे मिरा अब गुज़ारा नहीं
ये समझ लो कोई और चारा नहीं
जाने वाला कभी लौट आएगा ख़ुद
इसलिए मैंने उसको पुकारा नहीं
क्यों ख़फ़ा हो गए क्या ख़ता है मिरी
हक़ तुम्हारा कभी हमने मारा नहीं
हसरते-दीद दिल की, रही दिल में ही
तू ने ज़ुल्फ़ों को अपनी संवारा नहीं
बू-ए-गुल की तरह है मिरी ज़िन्दगी
मेरी आहों में हरगिज़ शरारा नहीं
उसको ख़ुशियों की मंज़िल मुक़द्दर ने दी
मुश्किलों से जो इन्सान हारा नहीं
आज है कौन दुनिया में ऐसा 'रक़ीब'
गर्दिशे वक़्त ने जिसको मारा नहीं