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गले मिलने को आपस में दुआएँ रोज़ आती हैं.. / मुनव्वर राना
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गले मिलने को आपस में दुआएँ रोज़ आती हैं
अभी मस्ज़िद के दरवाज़े पे माएँ रोज़ आती हैं
अभी रोशन हैं चाहत के दीये हम सबकी आँखों में
बुझाने के लिये पागल हवाएँ रोज़ आती हैं
कोई मरता नहीं है, हाँ मगर सब टूट जाते हैं
हमारे शहर में ऎसी वबाएँ<ref>बीमारियाँ</ref>रोज़ आती हैं
अभी दुनिया की चाहत ने मिरा पीछा नहीं छोड़ा
अभी मुझको बुलाने दाश्ताएँ<ref>रखैलें</ref>रोज़ आती हैं
ये सच है नफ़रतों की आग ने सब कुछ जला डाला
मगर उम्मीद की ठंडी हवाएँ रोज़ आती हैं
शब्दार्थ
<references/>