भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
गले मिला न कभी चाँद बख्त ऐसा था / शकेब जलाली
Kavita Kosh से
गले मिला न कभी चाँद बख़्त ऐसा था
हरा भरा बदन अपना दरख़्त ऐसा था
सितारे सिसकियाँ भरते थे ओस रोती थी
फ़साना-ए-जिगर लख़्त-लख़्त ऐसा था
ज़रा न मोम हुआ प्यार की हरारत से
चटख के टूट गया, दिल का सख़्त ऐसा था
ये और बात कि वो लब थे फूल-से नाज़ुक
कोई न सह सके, लहजा करख़्त ऐसा था
कहाँ की सैर न की तौसन-ए-तख़य्युल पर
हमें तो ये भी सुलेमान* के तख़्त ऐसा था
इधर से गुज़रा था मुल्क-ए-सुख़न का शहज़ादा
कोई न जान सका साज़-ओ-रख़्त ऐसा था