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गहराता है एक कुहासा / रविशंकर पाण्डेय

    गहराता है एक कुहासा
सूखे खेतों , भूखे गाँवों ,
गहराता है ऐक कुहासा!

तरकोल रंगकर सूरज पर
प्रखर-प्रकाशित, हैं उल्कायें,
सम्भावी, इतिहास बाँचकर
सिसके गीत, मर्सिया गायें,
बाँध गयी, विस्तार गगन का-
एक अजानबाहु परिभाषा!

तेज नमक अनुभव देती है
सड़ी व्यवस्था, खुले जखम में,
नभ, पीला पड़ता जाता है
रंग उड़ते रहने के गम में
कलियों के नाखून तेज हैं
कांटों का दिल , नरम छिला सा।

बाहर, सड़कों -चौराहों को
रौंद रही, भारी खामोशी,
भीतर , गला फाड़कर चीखे
एक सभ्यता ,पाली पोसी,
ऋषि दधीचि का ,चेहरा ओढे
अठ्ठहास करते दुर्वासा!
ग्हराता है-एक कुहासा!!