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गहे अँगुरियाँ ललन की, नँद चलन सिखावत / सूरदास

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गहे अँगुरियाँ ललन की, नँद चलन सिखावत ।
अरबराइ गिरि परत हैं, कर टेकि उठावत ॥
बार-बार बकि स्याम सौं कछु बोल बुलावत ।
दुहुँघाँ द्वै दँतुली भई, मुख अति छबि पावत ॥
कबहुँ कान्ह-कर छाँड़ि नँद, पग द्वैक रिंगावत ।
कबहुँ धरनि पर बैठि कै, मन मैं कछु गावत ॥
कबहुँ उलटि चलैं धाम कौं, घुटुरुनि करि धावत ।
सूर स्याम-मुख लखि महर, मन हरष बढ़ावत ॥

भावार्थ :-- श्रीनन्द जी अपने लाल की अँगुली पकड़कर उन्हें चलना सिखला रहे हैं ।(श्याम) लड़खड़ाकर गिर पड़ते हैं, तब हाथ का सहारा देकर उन्हें उठाते हैं, बार-बार श्याम से कुछ कहकर उनसे भी कुछ बुलवाते हैं । मोहन के (मुख में) दोनों ओर ऊपर-नीचे दो-दो दँतुलियाँ (छोटे दाँत) निकल आयी हैं, इससे उनका मुख अत्यन्त शोभित हो रहा है । कभी कन्हाई श्रीनन्द जी का हाथ छोड़कर दो पद चलता है, कभी पृथ्वी पर बैठकर मन-ही-मन कुछ गाता है । कभी मुड़कर घुटनों के बल भागता घर के भीतर की ओर चलपड़ता है । सूरदास जी कहते हैं कि श्यामसुन्दर का मुख देख-देखकर व्रजराज के हृदय में आनन्द बढ़ता जाता है ।