ग़ज़ल, मैं और मेरी ग़ज़ल / रविकांत अनमोल
ग़ज़ल ने अपना सफ़र बहुत पहले अरबी भाषा में शुरु किया। अरबी से फ़ारसी और फ़िर हिन्दवी उर्दू और हिन्दी में आते-आते यह कई रास्तों कई मंज़िलों से हो कर ग़ुज़री । बहुत सारे महान शाइर इसके क़दम से क़दम मिलाते हुए इसके हमराह चले, कुछ ने तो इसे अपने साथ चलने को मजबूर कर दिया और उनका रास्ता ही ग़ज़ल का रास्ता हो गया। कुछ और ऐसे भी हुए जिन्होंने ग़ज़ल को ऐसे रास्तों पर ज़बरदस्ती चलाने की कोशिश की जो ग़ज़ल के स्वभाव के अनुरूप नहीं थे, ग़ज़ल उनके साथ नहीं चली और वो अपने किए पर बरसों शर्मिंदा होते रहे।
गज़ल शब्द का अर्थ "प्रेमिका से बातचीत" या "औरतों से बातचीत" है। ग़ज़ल विधा भी इस शाब्दिक अर्थ से प्रेरित है। आरंभ में इसके मुख़्य विषय प्रेम और सौंदर्य थे। ग़ज़ल की भाषा भी उन दिनों वैसी ही थी जैसी औरतों से बातचीत के लिए उस ज़माने में प्रयोग में लाई जाती थी। जिस शिष्टाचार, सभ्यता और सलीक़े से औरतों से बातचीत की जाती है ग़ज़ल के विकास के साथ-साथ वही शिष्टाचार, सभ्यता और सलीक़ा इस का हिस्सा बन गया। समय के साथ-साथ प्रेमिका की जगह कभी ईश्वर ने ली और कभी मित्रों ने लेकिन बातचीत का तत्व ग़ज़ल का प्राण तत्व बना रहा। सैकड़ों साल से शिष्ट समाज में बातचीत के विषय बदलते रहे हैं- कभी शबाब, कभी शराब, कभी दुनिया, कभी ईश्वर, कभी भक्ति, कभी दर्शन, कभी राजनीति, कभी समाज और कभी मानवता। ग़ज़ल के विषय भी उसी के अनुसार बदलते रहे हैं। एक चीज़ जो नहीं बदली है वह है बातचीत- शिष्ट और सलीक़ेदार बातचीत। जिसने भी ग़ज़ल को बातचीत के रास्ते से हटाने की कोशिश की या शिष्टता और सलीक़े का दामन छोड़ा ग़ज़ल ने उसे ठुकरा दिया।
ग़ज़ल अपने प्रारंभिक काल से आज तक लगातार तरक्की की राह पर शान से बढ़ती रही है। आज ग़ज़ल दुनिया की सबसे लोकप्रिय काव्य विधाओं में से एक है जो विभिन्न भाषाओं में बड़े शौक़ से अपनाई गई और अपनाई जा रही है। इसमें कुछ ऐसी बात है जो मनुष्य को अनायास ही प्रभावित कर लेती है। तभी तो नित नए कवि ग़ज़ल के रंग ढंग सीख रहे हैं।
मैंने अपना कविता का सफ़र दस वर्ष की आयु में आरंभ किया जब मैं कक्षा सात में पढ़ता था। मैंने अपनी पहली मौलिक कविता पंजाबी में "फ़ैशन" शीर्षक से लिखी और यह कविता मुझे स्कूल के सालाना समारोह में बोलने का मौका भी मिला। इस से मुझे स्कूल भर की प्रशंसा और आगे काव्य रचना की प्रेरणा मिली। उससे बहुत पहले जब मैं चार साल का था और अपने पिता जी से पंजाबी पढ़ना सीख रहा था उसी समय मेरी कविता की नींव उन्होंने रख दी थी। वे तीसरी चौथी कक्षा के पंजाबी पाठ्यक्रम की कविताओं को लय से पढ़ते और मैं उसी लय से उन्हें दोहराता। अपने स्कूली दिनों में उन्होंने जो कविताएँ याद कर रखीं थीं उन्हें भी वे बहुत भावपूर्ण अन्दाज़ में सुनाया करते और मैं बड़े शौक़ से उन्हें सुना करता। मेरे दादा जी रामचरित मानस का पाठ गा कर करते तो मैं उनकी गोद में बैठकर सुनता। इसी सब से मेरे बालमन में कविता के प्रति लगाव पैदा हुआ। एक बार मेरे हाथ मेरे पिताजी की एक पुरानी डायरी लगी जिसमें उन्हों ने दो-तीन छोटी-छोटी पंजाबी कविताएँ लिखी हुई थीं। मेरे पूछने पर उन्होंने बताया कि यह उनकी स्वयं की रचनाएँ हैं। इससे मुझे बहुत आश्चर्य हुआ, मेरे मन में कवि की जो अलौकिक छवि थी उसने लौकिक रूप लिया और मेरे मन में पहली बार यह विचार आया कि मैं भी कविता लिख सकता हूँ। मुझे लगा कि कविता लिखना कठिन चाहे ही हो, असम्भव नहीं है। यही मेरी पहली कविता की प्रेरणा थी और एक महीने में मैं अपनी पहली मौलिक रचना करने में कामयाब हो गया। स्कूल के समारोह में मैंने यही कविता पढ़ी।
स्कूल में मिले इस पहले मौक़े और प्रोत्साहन ने मुझे वो प्रेरणा दी कि मैं छोटी-छोटी कविताएँ रचकर एक रफ़ कॉपी में नोट करने लगा। इनमें से कुछ हिन्दी में होती तो कुछ पंजाबी में। फिर पता नहीं कैसे मेरे मन में यह धारणा बैठ गई कि उर्दू के मुश्क़िल शब्दों के प्रयोग से कविता अधिक प्रभावशाली हो जाती है और चार पंक्तियों की कविता जिसमें पहली दूसरी और चौथी में तुक मिलती हो उसे शे'र कहते हैं। मैंने सुने सुनाए उर्दू शब्दों का प्रयोग करते हुए लगभग दो सौ (चार पंक्तियों वाले) शे'र लिख डाले। मज़े की बात यह कि उनमें से बहुत सारे उर्दू शब्दों का अर्थ मुझे पता नहीं था और बहुत से शे'र अर्थहीन थे, लेकिन इस अर्थहीन रचना ने मुझे भाषा की लयात्मकता और अंत्यानुप्रास की थोड़ी-बहुत समझ ज़रूर दी। पंजाबी और सरल हिन्दी में लिखी गई कविताओं ने मुझे समय-समय पर प्रशंसा दिलाई जिससे कविता के प्रति मेरा लगाव धीरे-धीरे बढ़ता रहा। छन्द का ज्ञान मुझे नहीं था लेकिन भावुकता तो ईश्वर प्रदत्त होती है। लय के अनुसार शब्दों को क्रमबद्ध करके तुक मिला लेता था बस यही मेरे लिए कविता थी।
स्कूल से कॉलेज में जाने पर मुझे अपने पंजाबी प्राध्यापक स सुखविंदर सिंह जी से मार्गदर्शन मिला। उन्होंने मुझे पंजाबी के दो महान कवियों अवतार सिँह "पाश" और सुरजीत"पात्तर" को पढ़ने के लिए प्रेरित किया। मैंने "लौह कथा" और हवा विच लिखे हर्फ़ उनसे लेकर पढ़ीं। मुक्त-छन्द कविता और ग़ज़ल का पता मुझे तभी चला। तभी मैनें पंजाबी में मुक्त-छन्द कविताएँ लिखीं। मुक्त-छन्द में मेरी रचनाओं की कॉलेज स्तर पर प्रशंसा भी हुई और अमृतसर व पठानकोट से प्रकाशित पत्र-पत्रिकाओं में वह रचनाएँ छपीं भी। ग़ज़ल के बारे में मेरी समझ सीमित ही थी। हिन्दी और पंजाबी फिल्मी गीतों से प्रभावित होकर मैंने अपनी कुछ लयबद्ध रचनाओं का शीर्षक गीत रख दिया। छोटे भाई प्रवेश को गाने का बहुत शौक था। वह उन दिनों कक्षा में और स्कूल के छोटे-छोटे समारोहों में पंजाबी गीत गाया करता था। मैंने अपनी कुछ रचनाओं की धुन बनाई और प्रवेश को सिखा दीं। स्टेज पर उन्हें प्रशंसा मिली। प्रवेश विभिन्न प्रतियोगिताओं में स्कूल का प्रतिनिधित्व करने लगा और पुरस्कार भी जीतने लगा। इससे उसकी रुचि संगीत में बढ़ती गई और मेरी कविता में।
१९९७-९८ ई में मैं बी० एड० करने जालन्धर चला गया । घर से दूर रहने का यह मेरा पहला अनुभव था। आज़ादी के साथ ज़िम्मेदारी, नए दोस्त, नए अनुभव, कुल मिला कर यह मेरे जीवन में भावनात्मक उथल-पुथल का समय था। इस समय में मैंने बहुत कुछ लिखा और जालन्धर के कुछ पत्र-पत्रिकाओं में छपवाया भी। शायद यह भविष्य के लिए तैयारी का समय था। पठानकोट लौट कर मैंने विभिन्न स्कूलों में नौकरी की और आगे की पढ़ाई भी शुरू कर दी। कविता का प्रवाह कम हुआ। इस दौरान मैं छिट-पुट रचनाएँ करता रहा लेकिन मन में कुछ कमी सी महसूस होती रही।
सितम्बर २००० की किसी शाम को मेरे मित्र और सहकर्मी श्री अशोक कुमार "चित्रकार" ने मुझसे कहा "आज तुम्हें किसी से मिलाते हैं" और हम एक सादा लिबास और ओजस्वी चेहरे वाले बुज़ुर्ग से मिलने जा पहुँचे। अशोक जी ने उनका परिचय करवाते हुए बताया कि प्रख्यात उर्दू शायर श्री राजेंद्र नाथ 'रहबर' की लिखी नज़्म "तेरे ख़ुशबू में बसे ख़त" श्री जगजीत सिँह जी ने गाई है। मैं तब तक उर्दू शाइरी से ज़्यादा परिचित नहीं था और मैंने उस से पहले श्री रहबर का नाम भी नहीं सुना था लेकिन श्री जगजीत सिँह की आवाज़ में उनकी नज़्म मैं सुन भी चुका था और सराह भी चुका था। इतने बड़े कवि के पास बैठना मेरे लिए बहुत बड़ा सौभाग्य था। जब उन्हें बताया गया कि मुझे कविता लिखने का शौक़ है तो उन्होंने कुछ सुनाने को कहा। मैंने बहुत संकुचाते हुए अपने एक गीत की कुछ पंक्तियाँ उन्हें सुनाई जिन्हें सुनकर उन्होंने पूछा "किसी उस्ताद से शाइरी सीखी है?" मैंने न में उत्तर दिया तो उन्होंने कहा "तुम्हें सीखना चाहिए"। मेरे मुँह से अनायास ही निकला "आप ही सिखा दीजिए", कुछ देर सोचने के बाद उन्हों ने मेरी विनति स्वीकार कर ली। यह मेरे लिए एक सुखद आश्चर्य ही था। क्योंकि मुझे यह आशा बिल्कुल नहीं थी कि अन्तरराष्ट्रीय ख्याति के इतने बड़े शाइर मुझे सिखाने के लिए तैयार हो जाएँगे। श्री रहबर ने मुझे सिखाना शुरू कर दिया और पगडण्डियों पर भटकती मेरी कविता उनकी अँगुली थामे ग़ज़ल की शाहराह पर आ ख़ड़ी हुई। उन के मार्गदर्शन में शाइरी की साधना करते हुए मुझे कई स्थानीय, राज्य स्तरीय और राष्ट्रीय मुशायरों में शामिल होने का मौक़ा मिला। रेडियो और टी० वी० पर कवि दरबारों में शिरकत की। इण्टरनेट पर कई वेबसाइटों पर मेरी कविता शामिल हुई, नामी पत्रिकाओं में और ग़ज़ल संग्रहों में मेरी ग़ज़लें शामिल की गईं। पैग़ाम नाम से एक वेबसाइट और वी० सी० डी० पुस्तक का सम्पादन भी मैंने किया, जिसमें २०० कवियों के परिचय और १००० से अधिक ग़ज़लें थीं। श्री रहबर से मिलना, मेरे जीवन का एक अत्यन्त महत्वपूर्ण मोड़ है। वे न सिर्फ़ माहिरे-फ़न कामिल उस्ताद हैं बल्कि एक बेहद नेक दिल, फ़रिश्ता सीरत इन्सान भी हैं। अपने पास आने वाले हर व्यक्ति का खुले दिल से स्वागत करना और उसकी मदद करना उनका स्वभाव है। मैंने ख़ुद उन्हें ऐसे लोगों की भी भलाई करते हुए देखा है जो उन के ख़िलाफ़ बोलते और साज़िशें करते रहते हैं। उनके पास बैठना मुझे किसी धार्मिक स्थान में बैठने जितना ही सुकून देता है। यही अनुभव उनके कई अन्य शागिर्दों का भी है।
साल २००० से २००४ तक कई ऐसे मौक़े आए जब उस्ताद साहिब ने मुझसे एक तख़ल्लुस रखने को कहा और तख़ल्लुस का महत्व भी समझाया लेकिन मैं कोई भी तख़ल्लुस सोच नहीं पा रहा था। अंततः उस्ताद साहिब ने एक दिन बातों बातों में कहा कि आपका तख़ल्लुस तो 'अनमोल' होना चाहिए।
मैंने उसी दिन से 'अनमोल' तख़ल्लुस रख लिया। यह बात अलग है कि मैं ख़ुद अपने आप को इस उपनाम के योग्य नहीं समझता और हमेशा इसी प्रयास में रहता हूँ कि अपने आप को इस उपनाम के योग्य बना सकूँ। मैंने ग़ज़ल और शाइरी की जो भी समझ प्राप्त की है वह पूरी तरह से उस्ताद साहिब जनाब राजेंद्रनाथ रहबर की रहबरी और उनकी दुआओं का असर है। मेरी प्रारम्भिक शाइरी भावों का सहज प्रस्फ़ुटन भर थी। उस प्रस्फ़ुटन को कला का रूप देने और प्रोत्साहित करने का काम उस्ताद साहिब ने ही किया। उनके क़दमों में बैठ कर मैंने जाना कि तुकबन्दी शाइरी नहीं है, शाइरी तो सत्य को देखना और उसी को अभिव्यक्त करना है। इसी आदर्श को सामने रखकर मैं श्री 'रहबर' की रहनुमाई में साधनारत हूँ। यह किताब मेरे साधनावृक्ष का प्रथम पुष्प है जिसे मैं सुधी पाठकों के चरणों में समर्पित कर रहा हूँ।
हम किसी रचना का पूरा आनंद तभी उठा सकते हैं जब हम रचनाकार की सोच से परिचित हों। पाठक मेरी ग़ज़लों को पढ़ें इससे पहले यह स्पष्ट करना मैं अपना धर्म मानता हूँ कि आख़िर मेरे लिए ग़ज़ल है क्या?
विद्वान ग़ज़ल की परिभाषा प्रेमिका से बातचीत अथवा औरतों से ग़ुफ़्तगू बताते हैं। ग़ज़ल साहित्य के अध्ययन से मैं इस नतीजे पर पहुँचा हूँ कि ग़ज़ल की परिभाषा में प्रेमिका शब्द गौण और बातचीत शब्द मुख्य है। मेरे लिए ग़ज़ल एक वार्तालाप है। एक वार्तालाप जो किसी आत्मीय व्यक्ति से हो रहा है। यह आत्मीय व्यक्ति प्रिया हो, मित्र हो या ईश्वर। मेरे लिए यह आत्मीय व्यक्ति कभी मेरे माता-पिता, कभी बुज़ुर्ग़, कभी भाई, कभी मित्र, कभी पत्नी तो कभी बेटा-बेटी रहे हैं। कभी-कभी यह वार्तालाप स्वयं से भी होता है। मुख्य बात आत्मीयता और बातचीत है। जहाँ आत्मीयता है, बातचीत है वहीं मेरे लिए ग़ज़ल है।
अच्छी अनौपचारिक बातचीत के जो मूल गुण हैं वही मेरे लिए अच्छी ग़ज़ल के भी गुण हैं। बातचीत किसी एक निश्चित विषय को लेकर नही की जाती, स्वभाविक रूप से किसी भी ध्यान खींचने वाले विषय पर शुरू होती है और विभिन्न विषयों पर होती हुई किसी एक विषय पर समाप्त हो जाती है उसी तरह ग़ज़ल भी मतला में किसी विषय पर आरम्भ हो कर हर शे'र में भिन्न विषय पर होती हुई अन्त में किसी एक विषय पर समाप्त हो जाती है। शिष्ट व सभ्य बातचीत में भाषा भावानुसार, अर्थपूर्ण, संक्षिप्त और मधुर होती है। अच्छी ग़ज़ल में भी यही गुण आवश्यक हैं। कुछ अन्तर है तो यह कि ग़ज़ल में हम छ्न्द का भी ध्यान रखते हैं।
ग़ज़ल में शे'रों का क्रम साधारणतयः महत्वपूर्ण नहीं होता। विभिन्न परिस्थितियों में शे'रों को विभिन्न क्रम में रखना ठीक हो सकता है। कभी-कभी कुछ शे'रों को छोड़ कर बाक़ी शे'रों को पढ़ा या गाया जा सकता है।
ग़ज़ल मूलतः बातचीत ही है। न उपदेश, न क़सीदा, न युद्ध वर्णन। केवल बातचीत- अंतरंग शिष्ट बातचीत। शायद इसी लिए ग़ज़ल अमर हो गई है। जब तक इंसान रहेगा तब तक बातचीत रहेगी और तभी तक ग़ज़ल भी रहेगी।
कुछ लोग ग़ज़ल को प्रेम और सौंदर्य का ही काव्य मानते हैं और दूसरे कुछ लोग इन विषयों को पुराने और बहुत बार दोहराए हुए मान कर निषिद्ध मानते हैं किन्तु मेरी अपनी राय यह है कि प्रेम और सौंदर्य की बात केवल वास्तविकता और स्वभाविकता तक सही है। शहर में दंगा हो रहा हो तो हम सौंदर्य पर बातचीत नहीं करते, यदि करते हैं तो ऐसी बातचीत स्वभाविक नहीं कही जाएगी। यही बात ग़ज़ल पर भी लागू होती है। प्रेम और सौंदर्य ऐसे सदाबहार विषय हैं जिन पर हर युग में बात होती रही है और आगे भी होती रहेगी। ग़ज़ल में इन विषयों का पूर्ण निषेध न तो सही है, न स्वभाविक। हां, यह बहुत ज़रूरी है कि इनका हिस्सा ग़ज़ल में उतना ही रहे जितना साधारण बातचीत में रहता है। अन्य विषयों को भी महत्व देना ज़रूरी है।
कुछ लोग ग़ज़ल को अस्वभाविक और बनावटी काव्य विधा मानते हैं। यह कहा जाता है कि शाइर क़ाफ़िया-रदीफ़ का सहारा लेकर विचारों को बनावटी रूप से प्रकट करता है, विचार स्वभाविक रूप से प्रस्फुटित नहीं होते। इस विषय पर मेरा मानना है कि काफ़िया-रदीफ़ विचारों के लिए प्रेरक अवश्य हैं, वे किसी विषय की ओर शाइर का ध्यान अवश्य दिला सकते हैं किन्तु विचार शाइर के अपने अनुभवों और मानसिक प्रक्रिया से स्वभाविक रूप से ही प्रकट होते हैं। उदाहरणतया मिट्टी शब्द मिट्टी की ओर आपका ध्यान अवश्य दिला सकता है किन्तु मिट्टी के बारे में आपके विचारों को प्रभावित नहीं कर सकता। इस लिए क़ाफ़िया-रदीफ़ के आधार पर ग़ज़ल को अस्वभाविक विधा घोषित करना मुझे तो अनुचित लगता है। ऐसे मानदंड रखने से तो सारी कलाएँ ही अस्वभाविक सिद्ध की जा सकती हैं क्योंकि प्रेरणा तो कला के मूल में होती ही है।
ग़ज़ल विधा क्योंकि बातचीत के बहुत नज़दीक है इस लिए छन्द गणना में शब्दों के उच्चारण को महत्व दिया जाता है। कई शब्दों के उच्चारण पर हिन्दी और उर्दू के विद्वानों के मत में बहुत अंतर है। मैंने अनुभव किया है कि हिन्दी के विद्वान संस्कृत के शब्दों के उच्चारण को अपरिवर्तित रखते हुए, अरबी, फ़ारसी के शब्दों के उच्चारण को अपने अनुसार ढालने में रुचि रखते हैं जबकि उर्दू के विद्वान अरबी, फ़ारसी के शब्दों के उच्चारण को अपरिवर्तित रखकर संस्कृत शब्दों को अपने सांचे में ढालना पसंद करते हैं। मेरा मानना है कि यदि इस ज़द्दी रवैये को छोड़ दिया जाए तो बातचीत के स्तर पर हिन्दी और उर्दू एक ही भाषा है। ग़ज़ल में शब्द के मूल उच्चारण को यथासंभव बनाए रखना चाहिए लेकिन यदि आवश्यक हो तो शब्दों के बहुप्रचलित उच्चारण का प्रयोग करने में कोई बुराई नहीं है।
ग़ज़ल के विषय में मेरी इन मान्यताओं को विद्वान किस हद तक सही मानते हैं यह तो मुझे पता नहीं लेकिन मेरे मन में ग़ज़ल की जो तस्वीर है वह इन धारणाओं के बिना पूरी नहीं होती।
रवि कांत 'अनमोल' पठानकोट, २०-७-२०१०