भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

ग़ज़ल-2 / नज़ीर अकबराबादी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

दूर से आए थे साक़ी सुन के मयख़ाने<ref>शराबघर</ref> को हम ।
बस तरसते ही चले अफ़सोस पैमाने<ref>शराब का जाम</ref> को हम ।

मय<ref>शराब</ref> भी है, मीना<ref>सुराही</ref> भी है, सागर<ref>शराब का प्याला</ref> भी है, साक़ी<ref>शराब पिलाने वाला</ref> नहीं,
दिल में आता है लगा दें आग मय ख़ाने को हम ।

क्यों नहीं लेता हमारी तू ख़बर ऐ बेख़बर,
क्या तेरे आशिक हुए थे दर्द-ओ-ग़म खाने को हम ।

हम को फँसना था कफ़स<ref>पिंजरा</ref> में क्या गिला सैयाद<ref>बहेलिया</ref> से ।
बस तरसते ही रहे हैं आब और दाने को हम ।

ताक अब्रू<ref>भौंह, भृकुटी</ref> में सनम के क्या ख़ुदाई रह गई.
अब तो पूछेंगे उसी काफ़िर के बुतख़ाने को हम ।

बाग में लगता नहीं सहरा<ref>जंगल</ref> से घबराता है दिल,
अब कहाँ ले जाके बैठें ऐसे दीवाने को हम ।

क्या हुई तकसीर<ref>ग़लती, ख़ता</ref> हम से तू बता दे ऐ ’नज़ीर’,
ताकि शादी-ए-मर्ग<ref>मौत की ख़ुशी</ref> समझें ऐसे मर जाने को हम ।।

शब्दार्थ
<references/>