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ग़ज़ल को माँ की तरह बाविकार करता हूँ / बशीर बद्र

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ग़ज़ल को माँ की तरह बा-वक़ार करता हूँ
मैं मामता के कटोरों में दूध भरता हूँ

ये देख हिज्र तेरा कितना ख़ूबसूरत है
अजीब मर्द हूँ सोलह श्रृंगार करता हूँ

बदन समेट के ले जाए जैसे शाम की धूप
तुम्हारे शहर से मैं इस तरह गुज़रता हूँ

तमाम दिन का सफ़र करके रोज़ शाम के बाद
पहाड़ियों से घिरी क़ब्र में उतरता हूँ

मुझे सकून घने जंगलों में मिलता है
मैं रास्तों से नहीं मंज़िलों से डरता हूँ