भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
ग़ज़ल हालात पर बेबाक तीखा व्यंग्य करती है / प्रफुल्ल कुमार परवेज़
Kavita Kosh से
ग़ज़ल हालात पर बेबाक तीखा व्यंग करती है
किसी तरह नकाबें नोंचने का ढंग करती है
नहीं दरबार के क़ाबिल रही दरबार कहता है
ग़ज़ल अब आम लोगों का बराबत संग करती है
कभी वो लोरियों की तरह जिनको थपथपाती थी
घ़्अज़ल अब नींद को उनकी बराबर भंग करती है
कभी जिसकी वजह जिन मसफ़िलों में रंग जमता था
ग़ज़ल उन महफ़िलों के रंग अब बदरंग करती है
सुसंस्कृत सभ्य अब उससे बड़ा परहेज़ करते हैं
ग़ज़ल वो लोग कहते हैं बड़ा हुड़दंग करती है
महल वाले समझते थे उसे महलों की आदत है
ग़ज़ल फुटपाथ पर आ कर उन्हें अब दंग करती है