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ग़म—ए—अंजाम—ए—महब्बत से छुड़ाया जाये / साग़र पालमपुरी

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ग़म—ए—अंजाम—ए—महब्बत से छुड़ाया जाये

दिल—ए—मजरूह को फिर होश में लाया जाये


शब—ए—फ़ुर्क़त के अँधेरों को मिटाने के लिए

दिया अश्कों का सरे शाम जलाया जाये


वो जो कहते थे कि सावन में मिलेंगे हम से

उनका वादा उन्हें फिर याद दिलाया जाये


ये नदी तट, ये जवाँ रुत, ये सुनहरी शामें

कैसे उस जान—ए—तमन्ना को बुलाया जाये ?


आओ सूखे हुए कुछ फूल इकठ्ठे कर लें

इस बहाने ही गई रुत को बुलाया जाये


आस के गगन पे पंछी —सा उसे उड़ने दो

दिल पे महरूमी का क्यों तीर चलाया जाये


प्यास जुग—जुग की ये मिटती नहीं अमृत से भी

हम वो प्यासे हैं जिन्हें ज़ह्र पिलाया जाये


छेड़ कर फिर से किसी भूली हुई याद की धुन

दिल के सोये हुए ज़ख़्मों को जगाया जाये


क्या करें अपना मुक़द्दर तो यही है ‘साग़र’!

उम्र भर दर्द का इक बोझ उठाया जाये.


महरूमी= वंचित होने की स्थिति