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ग़म नहीं वो शीशा-ए-दिल को शिकस्ता कर गया / रामप्रकाश 'बेखुद' लखनवी
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ग़म नही वो शीशा-ए-दिल को शिकस्ता कर गया
हाँ, ख़ुशी यह है कि उसके हाथ से पत्थर गया ।
या नही है फिर मेरी रूदाद-ए-ग़म मे कुछ असर
या कि फिर उस शख़्स की आँखों का पानी मर गया ।
ज़िन्दगी का उम्र भर करते रहे जोड़ और घटाव
और जब हल के करीब आए तो काग़ज़ भर गया ।
पाँव रखते ही तेरी दुनिया मे हर इक आदमी
देख कर दुनिया तेरी चीख़ उट्ठा, इतना डर गया ।
मौत पर मुफ़लिस की यूँ करती है दुनिया तब्सिरा
उसको भी मरना था, आख़िरकार, वो भी मर गया ।
अब तो बस इक फ़र्ज़ हँसने का अदा करते हैं हम
हर गुरूर-ओ-जोश, हर अन्दाज़, हर तेवर गया ।
यूँ मुहब्बत ले गई किस्तों मे ’बेख़ुद’ का वजूद
पहले दिल, फिर चैन, फिर नीदें गईं, फिर सर गया ।