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ग़म नहीं हो तो ज़िंदगी भी क्या / हस्तीमल 'हस्ती'
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ग़म नहीं हो तो ज़िंदगी भी क्या
ये ग़लत है तो फिर सही भी क्या
सच कहूँ तो हज़ार तकलीफ़ें
झूठ बोलूँ तो आदमी भी क्या
बाँट लेती है मुश्किलें अपनी
हो न ऐसा तो दोस्ती भी क्या
चंद दानें उड़ान मीलों की
हम परिंदों की ज़िंदगी भी क्या
रंग वो क्या है जो उतर जाए
जो चली जाए वो ख़ुशी भी क्या